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Yamuna Ashtakam (यमुना अष्टकम) | श्रीमद् यमुनाष्टक with lyrics and hindi meaning

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Yamuna Ashtakam (यमुना अष्टकम) | श्रीमद् यमुनाष्टक with lyrics and hindi meaning

Yamuna Ashtakam (यमुना अष्टकम) | श्रीमद् यमुनाष्टक with lyrics and hindi meaning
Yamuna Ashtakam (यमुना अष्टकम) | श्रीमद् यमुनाष्टक with lyrics and hindi meaning

 

॥ दोहा॥

ब्रजाधिराज-नन्दनाम्बुदाभ गात्र चंदना- नुलेपगंधवाहिनीं
भवाब्धिबीजदाहिनीम्।
जगत्त्रये यशस्वनीं लसत्सुधापयस्विनीं- भजे कलिन्दनन्दिनीं दुरंतमोहभंजनीम् ॥१॥

जो नवीन मेघ के समान कान्ति वाले ब्रजराज-नन्दन श्रीकृष्ण के शरीर में अनुलेपित चन्दन गंध का वहन करती हैं, जो आवागमन रूप भवसागर के बीज को जला देती हैं, जिनका सुयश तीनों लोक — में विख्यात है, जिनका जल अमृत के समान उज्ज्वल है एवं जो दान मोह (जिसका अन्तिम परिणाम बड़ा कष्टमय है) को नष्ट करें वाली हैं, मैं उन कलिन्दनन्दिनी श्रीयमुनाजी का भजन करता हूँ।

टीका कवित्त-

ब्रजराज – नंदन कौ मेघश्याम गात तामें,
चंदन की खौर चित्र रचना रचावै है। सोई अनुलेप अंगराग कौ प्रवाह बहै,
भव- सिन्धु बीज निःशेष कै जरावै है। तीन लोक माँझ जाके जस कौ वितान तन्यौ,
सुधा सम जल क्रीड़ा जुगल करावे है। ता कलिन्दनन्दिनी कौं भजौं ‘हित चन्द’ जो,
दुरंत मोह भेदि वन-सम्पति लखावै ।।1।।

 

रसैकसीमराधिकापदाब्जभक्तिसाधिका- तदंगरागपिंजरप्रभातिपुंजमंजुलाम 
स्वरोचिषातिशोभितां कृतां जनाथिगंजनां- भजे कलिन्दनन्दिनीं दुरंतमोहभंजनीम् ॥ २ ॥

जो रस की एकमात्र सीमा श्रीराधिकाजी के चरण कमल की भक्ति को प्राप्त कराने वाली हैं और उन्हीं श्रीराधिकाजी के अंग राग का वहन करने के कारण जो अत्यन्त मंजुल प्रकाश से युक्त हैं, जो स्वयं अपनी प्रभा से अत्यन्त शोभित हैं, जो अपने जनों के पूर्व कृत पापों को समूल नष्ट करने में बहुत ही कुशल हैं एवं जो दुरन्त मोह को नष्ट करने वाली हैं, मैं उन कलिन्दनन्दिनी श्रीयमुनाजी का भजन करता हूँ।

टीका कवित्त-

रस की है एक सींव सदा राधाप्यारी, ताके-
चरनारविन्द की सुनि भक्ति को सथाये है।
प्रिया – अंगराग सौं विचित्रित प्रभा कौं धरें,
अति मंजु पुंज छबि नव सरसाव है ॥
करने अपनी सु कांति करि शोभित सरस रूप,
अंजन कौं भंजन करत छवि यव है।
ता कलिन्दनन्दिनी कौं भजौं ‘हित चन्द’ जो,
दुरंत मोह भेदि वन-सम्पति लखावै है ॥२

Shri Yamuna ji Temple, Vrindavan

 

ब्रजेन्द्रसूनुराधिकाहृदिप्रपूर्यमाणयो- महारसाब्धिपूरयोरिवातितीव्रवेगतः ।
बहिः समुच्छलन्नवप्रवाहरूपिणीमहं- भजे कलिन्दनन्दिनीं दुरंतमोहभंजनीम् ॥३॥

श्रीनन्दनन्दन और श्रीराधिका के हृदय में पूर्ण रूप से भरा हुआ महा रस- सागर का उल्लास ही मानों तीव्र वेग से बाहर उछल कर जिनका नित्य नवीन प्रबाह बन गया है , एवं जो तुरन्त मोह को नष्ट करने वाली है, मैं उन कलिन्दनन्दिनी श्रीयमुनाजी का भजन करता हूँ। 

टीका कवित्त-

नित्य राधाबल्लभ कें हिय माँझ पूरि रह्यौ,
महा रस-सागर सदा ही उमगाव है।
नाही कौ जो पूर वह सबनि कौं दूर, ताकौं-
अति तीव्र वेग करि दृग दरसावे है ।
बाहिर कौं उछल कैं नवल प्रवाह रूप,
अति ही अनूप परिकर कौं रिझावै है।
ता कलिन्दनन्दिनी कौं भजौं ‘हित चन्द’ जो,
दुरंत मोह भेदि वन-सम्पति लखावै है || ३ ||

 

विचित्ररत्लवद्धसत्तटद्वयश्रियोज्ज्वलां- विचित्रहंससारसाद्यनन्तपक्षिसंकुलाम्।
विचित्रमीनमेखलां कृतातिदीनपालितां- भजे कलिन्दनन्दिनीं दुरंतमोहभंजनीम्॥४॥

जिनके दोनों तट उज्ज्वल कान्ति फैलाने वाले रत्नों से आबद्ध हैं तथा विचित्र प्रकार के हंस-सारसादिक पंक्षि-समूह से पूरिपूर्ण हैं, जल में बिहार करती हुई विचित्र-विचित्र मछलियाँ ही मानों जिनकी मेखला (करधनी) की शोभा को प्राप्त हो रही है, जो अधम से अधम  दीनजनों का पालन करने वाली हैं एवं जो दुरन्त मोह को नष्ट करने वाली हैं, मैं उन कलिन्दनन्दिनी श्रीयमुनाजी का भजन करता हूँ।

टीका कवित्त-

रतन – जटित दोउ तटनि की शोभा अति,
उज्ज्वल सरस सो अनन्त छबि छावै है।
चित्र औ विचित्र हस-सारस को आदि लै,
अनेक पंछी डोलैं तिन्हें मोद उपजावै है ॥
नाना ‘भाँति मीन ते तो करत कलोल जामें,
दीननि के पालनि कौं विरद बढ़ावै है ।
ता कलिन्दनन्दिनी कौं भजौं ‘हित चन्द’ जो,
दुरंत मोह भेदि वन-सम्पति लखावै है ॥४॥

 

वहतिकां श्रियांहरेर्मुदा कृपास्वरूपिणीं-
विशुद्धभक्तिमुज्ज्वला परेरसात्मिकां विदुः ।
सुधाश्रुतित्वलौकिकीं परेशवर्णरूपिणीं-
भजे कलिन्दनन्दिनीं दुरंतमोहभंजनीम्॥५॥

जो श्रीहरि की श्याम कांति का मोद पूर्वक वहन करती हैं, जो साक्षात् कृपा स्वरूपिणी हैं, जो परम रसमयी उज्ज्वल एवं विशु- भक्ति स्वरूपा हैं, जो अमृत की अलौकिक धारा स्वरूप हैं, जिनका वर्ण परम प्रभु श्रीकृष्ण के श्याम रंग के समान है एवं जो दुरन्त मोह को नष्ट करने वाली हैं, मैं उन कलिन्दनन्दिनी श्रीयमुनाजी का भजन करता हूँ।

टीका कवित्त-

हरिजू की शोभा ताकौं बहत सदा ही रहै,
अति ही कृपा स्वरूप कहत न आवै है
भक्ति जो विशुद्ध सोइ उज्ज्वल महा है श्रेष्ठ,
रस ही की मूर्ति जानि हिय सुख पावै है
नित ही अलौकिक सुधा कौं श्रवै प्रेम द्रवै,
श्याम कौ वरन धरै छबि दरसावै
ता कलिन्दनन्दिनी कौं भजौं ‘हित चन्द’ जो,
दुरंत मोह भेदि वन-सम्पति लखावै॥5॥

 

सुरेन्द्रवृन्दवन्दितां श्रीमद यमुनाष्टक रसादधिष्ठितेवने-
सदोपलब्धमाधवाद्भुतैकसदृशोन्मदाम्।
अतीव विह्वलामिवच्चलत्तरंगदोलतां-
भजे कलिन्दनन्दिनीं दुरंतमोहभंजनीम् ॥६॥

जो सुरेंद्रों के समूहों द्वारा वन्दित हैं, जो उन श्रीमाधव के समान रसोन्मत्त हैं, जिन्होंने रसभूमि श्रीवृन्दावन में किसी अद्भुत रस की प्राप्ति की है, जिनकी तरंग रूपी भुजायें प्रेम विह्वलता के कारण अत्यंत चंचल बनी हुई हैं एवं जो तुरंत मोह को नष्ट करने वाली हैं, मैं उन कलिन्दनन्दिनी श्रीयमुनाजी का भजन करता हूँ।

टीका कवित्त-

शिव-विधि-इन्द्र जाकौं वन्दन करत सदा,
सो तौ रस रूप धाम ही में सचु पाव है।
माधव सौं पायौ अद्भुत एक रस, तासौं-
सदा उन्मत्त रहै छकनि छकावै है ||
अतिशय विह्वल है उछलें तरंग मानौं,
ऊँची भुज-लता करि मिलन कौं आवै है।
ता कलिन्दनन्दिनी कौं भजौं ‘हित चन्द’ जो,
दुरंत मोह भेदि वन-सम्पति लखावै है ॥६॥

 

प्रफुल्लपंकजाननां लसन्नवोत्पलेक्षणां-
रथांगनामयुग्मकस्तनीमुदारहंसिकाम् ।
नितंबचारुरोधसां हरेः प्रियां रसोज्ज्वलां-
भजे कलिन्दनन्दिनीं दुरंतमोहभंजनीम्॥७॥

श्रीयमुनाजी में खिले हुए लाल कमल ही मानों उनका मुख है और शोभाशाली नीलकमल ही उनके नेत्र हैं, चकवे की जोड़ी ही उनके स्तन हैं, जिनमें अनेक हंस क्रीड़ा कर रहे हैं, जिनके दोनों तट ही उनके नितम्ब हैं, जो श्रीहरि की प्रिया श्रीराधा के रस से उज्ज्वल बनी हुई है एवं जो दुरन्त मोह को नष्ट करने वाली हैं, मैं उन कलिन्दनन्दिनी श्रीयमुनाजी का भजन करता हूँ।

टीका कवित्त-

प्रफुलित कंज सौ वदन मानौं शोभा देत,
उत्पल नैंन सौं कटाक्ष बरसाव है।
चकवा औ चकवी यौं राजत हैं कुच दोउ,
हंस बोलें सोई क्षुद्र घंटिका बजावै है ।।
सुन्दर जो विवि तट तेई हैं नितंब, पिय-
प्यारी कौ उज्ज्वल रस-रूप दरसाव है।
ता कलिन्दनन्दिनी कौं भजौं ‘हित चन्द’ जो,
दुरंत मोह भेदि वन-सम्पति लखावै है॥७॥

 

समस्तवेदमस्तकैरगम्य वैभवां सदा-
महामुनीन्द्रनारदादिभिः सदैव भाविताम्।
अतुल्यपामरैरपि श्रितां पुमर्थशारदां-
भजे कलिन्दनन्दिनीं दुरंतमोहभंजनीम्॥८॥

जिनका वैभव समस्त उपनिषदों के लिए अगम्य है, नारदादिक महा मुनीन्द्र जिनका ध्यान करते हैं, आपका आश्रय लेने वाले सर्वश्रेष्ट पामरों को भी जो प्रेम प्रदान करती हैं एवं जो दुरन्त मोह को नष्ट करने वाली हैं, मैं उन कलिन्दनन्दिनी श्रीयमुनाजी का भजन करता हूँ।

टीका कवित्त-

शास्त्र औ पुरान वेद-उपनिषदादि जाके,
वैभव कौं गावैं, भेद उर में न आवै है।
महा जे मुनीन्द्र और नारदादि भक्त सदा,
हिय माँझ ध्यावत, पै मन न अघावै है ॥
पामर अतुल्य जाकौ आश्रय करत मात्र,
सब पुरुषारथ के सार ही की पावे है
ता कलिन्दनन्दिनी कौं भजौं ‘हित चन्द’ जो,
दुरंत मोह भेदि वन-सम्पति लखावे है।॥8॥

 

य एतदष्टकं बुधस्त्रिकालमादृतः पठेत्-
कलिन्दनन्दिनीं हृदा विचिंत्य विश्ववंदिताम् ।
इहैव राधिकापतेः पदाब्जभक्तिमुत्तमा-
मवाप्य स ध्रुवं भवेत्परत्र तत्प्रियानुगः ॥ ९ ॥

जो विवेकीजन विश्ववन्दित श्रीयमुनाजी का हृदय में ध्यान करते हुए इस अष्टक का तीनों कालों में अर्थात् प्रातः, मध्याह्न तथा सायंकाल आदरपूर्वक पाठ करेंगे, वे राधिकापति श्रीकृष्ण प्रेमलक्षणा भक्ति को इसी लोक में प्राप्त करेंगे और शरीर त्याग के पश्चात् निश्चय ही सहचरि भाव से श्रीराधिका के अनुगत हो जायेंगे।

टीका कवित्त-

अष्टक पुनीत जो त्रिकाल याकौ पाठ करै,
अति आनन्द सौं विशुद्ध है कैं तन में।
विश्व जाहि वन्दै ता कलिन्दनन्दिनी कौ, हिय-
ध्यान धेरै अधिक मुदित होइ मन में।
याही लोक माँझ राधापति की पदाब्ज भक्ति,
उत्तम कौं पाय निश्चै बसै निज जन में।
फेरि पिय-प्यारी जू की अनुचरी होय ‘चन्द’,
हित जुत सुख लहै, रहै अलिगन में ॥१॥

 

फलस्तुति दोहा-

जमुना- अष्टक जो पढ़े, हित सौं नित चित लाय।
सो दंपति संपति लहै, वन में अलि तन पाय॥१॥
श्रीहित भाख्यो मूल जो, ताकी टीका ‘चन्द’।
प्रगट कियौ निजु जननि कौं, दंपति रस कौ कन्द ॥२॥

॥ इति श्रीमद् यमुनाष्टक श्रीहितहरिवंश गोस्वामिना विरचित संपूर्णम् ॥

 

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